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मंगलवार, 19 अगस्त 2008

भावनाओं की भाषा

जनमानस को भावनात्मक स्तर पर जो बात ठेस पहंचा जाएं, उसे दूर करने के लिए जरुरी है कि जो संप्रेषित हो, वह भावनात्मक रास्ते से हो। तर्क या नीति की तंग गलियों से नहीं।

हाल का उदाहरण लें तो आप देखेंगे कि सपा अन्य राजनैतिक दलों पर अपने सोचे-समझे संवाद के कारण भारी पड़ा। सोची-समझी रणनीति के तहत सपा ने कहा कि देश के हित में ही उसने कांग्रेस का हाथ थामा। दूसरी तरफ तमाम तर्कों को मीडिया के माध्यम से जनता के सामने रखने के बावजूद जनमानस ने माकपा को ऐसे दल के रुप में ग्रहण किया जो सत्ता भोगना तो चाहती है पर उसके साथ आई जिम्मेदारी को नहीं। तमाम मठाधीशों को पता था कि सपा, माकपा और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश, केरल और प्रश्चिम बंगाल की राजनीतिक मजबूरियों के कारण ही साथ चलने या न चलने के फैसले लिए हैं। लेकिन भावनात्मक सरलीकरण के आधार पर टिके जनसंवाद के अखाड़े में जीत सपा की हुई। परमाणु शक्ति के मामले में आम जनता मान चुकी थी कि देश हित सर्वपरि है। जनता की इस भावना को सपा ने लपक लिया।

दूसरा उदाहरण अमरनाथ यात्रा विवाद का है। अमरनाथ यात्रा बोर्ड ने जम्मू कश्मीर सरकार से कुछ एकड़ जमीन इसलिए ली ताकि यात्रियों के शौचालय और छत जरुरतों को सुलभ बनाए। आगे-पीछे का परिणाम सोचे बिना सरकार ने कागज पर जमीन बोर्ड को सौंप दी। सरकार के इस फैसले ने घाटी में सोए पड़े अलगाववादी तत्वों में नई जान फूंक दी। भारत विरोधी नारों से घाटी गूंज उठी। दबाव में आकर जम्मू कश्मीर सरकार ने तय किया कि वह यात्रियों के शौचालय और छत जैसी जरुरतों को पूरा करने का भार खुद ही उठाएगी और बोर्ड को यह जिम्मेदारी नहीं देगी। सरकार का सोचना था कि ऐसा करते ही बोर्ड को जमीन सौंपने के मुद्दे की अहमियत नहीं रहेगी। लेकिन सरकार के बदले फैसले ने जम्मू में हिंदू कट्टरपंथियों को नया मुद्दा दे दिया। कट्टपंथियों ने तोड़ा-फोड़ की राजनीति के माध्यम से यह संवाद फैलाया कि कांग्रेस हिंदुओं के हितों को सुरक्षित रखने के काबिल नहीं। हिंदु कट्टरपंथी यही जनसंवाद जनमानस में उतारने में सफल हो गए। भावनाओं की लड़ाई बदस्तूर जारी है। राज्य और केंद्र के तमाम तर्क पर टिके संवाद अब तक बेअसर रहे हैं।

बीआरटी कॉरीडोर का मीडिया जनसंवाद उपरोक्त धारणा की पुष्टि करता है। इसे इस्तेमाल करने वालों में मोटरगाड़ी वाले केवल 6 प्रतिशत थे और यह अंग्रेजी मीडिया के पाठक थे। अंग्रेजी मीडिया ने अपने पाठकों की तकलीकों के बयान करते हुए गीत लिखे और उसे जोर-शोर से गाया। इन गानों के भड़कीले बोलों से प्रभावित हिंदी मीडिया ने भी बिना दिमाग लगाए इन्हीं गीतों को शुरु में गाया। हिंदी मीडिया को जरा भी ख्याल नहीं आया कि उसके पाठक तो बसों में, साइकिल पर या पैदल सफर करने वाले हैं। उसे सुध नहीं रही कि बीआरटी कारीडोर में बसों, साइकिलों और पैदल चलने वालों की संख्या कुल मिलाकर 80 प्रतिशत से भी अधिक है। उन्हें इस बात का अहसास देर से हुआ कि बीआरटी कारीडोर इस्तेमाल करने वाले इन 80 प्रतिशत लोगों ने पहली बार खुली सड़क का मजा चखा था और खुश थे। पर तब तक अंग्रेजी मीडिया जनमानस पर भावनात्मक प्रभाव जमा चुकी थी। हिंदी मीडिया को जल्द ही अपनी भूल का अहसास हुआ। उसे अंग्रजी मीडिया के फैलाए हुए भावनात्मक प्रभाव को मिटाने के लिए दूसरा भावनात्मक गीत लिखना पड़ा। बाहुल्य के हित का। जनहित हिताय का, जनहित सुखाय का।

इसी विषय पर एक और दिलचस्प मिसाल है। कुछ महीने पहले एक हिंदी टीवी चैनल ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के बयान को तोड़-मरोड़ कर दुष्प्रचार किया। हुआ यह कि शीला दीक्षित एक फ्लाईओवर के उद्घाटन के समारोह में बोल रही थीं। उन्होंने दिल्ली की बढ़ती आबादी के पीछे हांफते इंफ्रास्ट्रक्चर पर अपनी राय रखी। कहा कि बिहार, यूपी और दूसरे आस-पास के राज्यों से लोगों के लगातार आकर बसने के कारण दिल्ली पर जनसुविधाओं की कमी का दबाव बना रहता है। चैनल के रिपोर्टर ने खबर को चटपटा और भड़काऊ बनाने के लिए एडिटिंग करते वक्त बिहार और यूपी शब्द के बाद 'आस-पास के अन्य राज्यों के' जैसे शब्दों को हटा दिया। संदेश यह गया कि शीला दीक्षित बिहार और यूपी के लोगों के प्रति नकारात्मक विचार रखती हैं। इस भावनात्मक मुद्दे ने तूल पकड़ा और दूसरे चैनल भी इसी राग को अलापने लगे। जल्द ही दिल्ली और पटना की सड़कों पर शीला दीक्षित ने मुर्दाबाद के नारे गूंजने लगे। शुरू में मुख्यमंत्री के सलाहकारों ने यह तार्किक रास्ता अपनाया कि शीला दीक्षित ने जब ऐसी मंशा से कोई बात कही ही नहीं है तब सफाई देकर वह चोर की दाढ़ी में तिनका जैसे काम क्यों करें। उन दिनों संसद सत्र चल रहा था। अगले दिन मामला संसद में गूंजा। मामले को हाथ से निकलते देख मुख्यमंत्री ने फैसला किया कि वह आगे आकर मीडिया के माध्यम से बिहार और यूपी के लोगों से आगे आकर जनसंवाद करेगी। प्रेस कांग्रेस में उन्होंने अपनी सफाई दी। पत्रकारों में उद्घाटन समारोह के दरम्यान कही गई पूरी बात की रिकार्डिड सीडी बांटी। आखिकार भावनात्मक स्तर पर उतर कर यह भी कहा कि इन खुलासों के बाद भी उनकी किसी बात से किसी प्रांत विशेष के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो वे क्षमाप्रर्थी हैं। मामला तत्काल ठंडा हो गया। बाकी मीडिया समझ गया कि उनके साथी हिंदी चैनल ने दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए यह शातिर चाल चली थी।

एक भावना की आंधी को थामा दूसरी भावना की बारिश ने। तर्क की दीवार कमजोर साबित हुई। लब्बोलुबाब ये कि जनता के दिल में कोई बात लग गई हो तो उसे ठंडक अपनी दिल की आवाज से पहुंचाएं, दिमाग के तर्कों से नहीं।

(यह कालम 17 अगस्त, 2008 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ)

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